उपनाम या जातिनाम या Sirname

सवाल जाती प्रथा या जातिनाम (सर नेम) का नहीं है, सवाल ये है यही बातें हम बार बार पढ़तें हैं दोहरातें हैं लेकिन अपनाते नहीं हैं। हम सत्संग में जाते हैं, ज्ञान लेते हैं और दूसरों को देते हैं मगर खुद ज्ञान नहीं अपनाते। हमारे वेदो ने हमें सब तरह का ज्ञान दिया है मगर हमने ना लिया और ना अपनाया। अब अंग्रेज हमें वही ज्ञान पेटेंट करवाकर बांट रहे हैं तो हमें याद आ रहा है कि ये तो हमारा ही ज्ञान है, ठप्पा कोई और लगा रहा है। उस वक्त हमको ठगा हुआ सा महसूस होता है। आजकल सभी ज्ञानी हैं किसी को भी गुरु की जरूरत नहीं लग रही। मगर सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता यही शास्वत सत्य है। लेकिन अनुभव ज्ञान के महत्व को और भी बढ़ा देता है। 
"संघ शक्ति कलयुगे" संगठन में बहुत शक्ति होती है, और ये शक्ति तभी बनती है जब संगठन में सबको बराबर माना जाये।  संघ हमेशा से हमें एक बराबर होकर काम करने की शिक्षा देता है। वहाँ जातिप्रथा नहीं है। इसलिए वहाँ जातिनाम का कोई महत्व नहीं और ना ही प्रयोग की इजाजत है। संघ मे शक्ति का यही मूल मंत्र है। लेकिन हम सिर्फ संघ की बात करते है मगर शिक्षाएं अपनाने को तैयार नहीं है। हम ये ध्यान रखें भार लादे नहीं, उठाएं भी। संघ में भार खुद उठाया जाता है और राजनीति में भार लादा जाता है। सबसे पहले हमें यही सीखना पड़ेगा। याद रखिये पायदान कभी सपाट जमीन पर नहीं बनाये जा सकते। जिन्हे साथ चलना होता है वो पायदान नही बनाते। ये सुझाव बहुत ही महत्वपूर्ण है और हम सब को से अपनाना चाहिए। ऐसे सुझाव ही समाज को जोड़ने के कार्य में मत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

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